लड़का सरकारी नौकरी में है।

तुझे पाने की ख्वाहिश दिल मे बसाये रखता हूं,

तेरे नाम का दीपक आज भी जलाए रखता हूं।

कहने लगे है लोग कि पागल हूं तेरे प्यार में,

फिर भी सबके सामने सर उठाये रखता हूं।

अश्विनी जोशी के ये लाइन सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहे अधिकतर युवाओं पर सटीक बैठती हैं। सरकारी नौकरी, एक ऐसी गंगा जिसमे एक बार डुबकी लगा लें तो इस मानव जीवन का उद्देश पूरा हो जाएगा। एक बार, बस एक बार डाकिया नियुक्ति पत्र लेकर बाबूजी का नाम पूछते पूछते घर आ जाए और उनके हाथों में चिट्ठी पकड़ाते हुए कहे कि "आपके बबुआ के नाम से चिट्ठी आया है, ई लीजिए और तनी यहां सैन कर दीजिए"। डाकिया के जाते ही तुरंत बाद बाबूजी जी का फोन आए और कहे कि "रे तुम्हरा कोई चिट्ठी आया है" और इधर से जवाब मिले कि " बाबूजी, ऊ नौकरिया का ज्वाइनिंग लेटर हैं, हमको सरकारी नौकरी लग गई हैं"। बस इतना हो जाए, सिर्फ एक बार, कसम से, मतलब जिंदगी सफल हो जाए।

इसी आशा और उम्मीद के साथ हमारे देश के अधिकतर युवा सरकारी नौकरी के इस महाभारत को जीतने कुरुक्षेत्र में उतरते हैं। महाभारत तो फिर भी 18 दिनों में खत्म हो गया और हस्तिनापुर का सिंहासन पांडवो को मिल गया, लेकिन सरकारी नौकरी का ये कुरुक्षेत्र परिणामविहीन होता हैं। इस जंग के मैदान में आपको शायद पांच साल लग सकते है, दस साल लग सकते है, या फिर इससे भी अधिक, पर इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि उसके बाद भी आपके हाथों में हस्तिनापुर की गद्दी हो। महाभारत की लड़ाई में तो खैर पांडवो के साथ खुद वासुदेव खड़े थे, लेकिन इस महाभारत को अकेले लड़ना होता हैं, वो भी शायद कई सालों तक, बिना रुके, बना थके, लगातार। और अंत में ये एक कड़वा सच है कि इसमें से अधिकतर योद्धा अपने जीवन के महत्वपूर्ण समय व्यतीत करने के बाद थक हारकर पीछे मुड़ जाते है, खाली हाथ, हताश, निराश, बेबस।

सरकारी नौकरी की तैयारी का शुरुआत वो समय होता है जब अधिकतर युवाओं की पहली बार थोड़ी बहुत दाढ़ी मूछें आ रही होती हैं। बारहवीं की परीक्षा पास करने के बाद स्नातक में दाखिला लेने के साथ साथ अधिकतर युवा इसकी तैयारी में जुट जाते हैं। उसके बाद तो उनकी एक अलग ही दुनिया तैयार हो जाती हैं। क्या होली, क्या दिवाली, क्या छठ सबको पीछे छोड़कर, घर परिवार से दूर पटना, दिल्ली, इलाहाबाद जैसे बड़े शहरों के किसी छोटे से कमरे में, दीवारों पर देश-दुनिया के नक्शे , साथ में विवेकानंद और अब्दुल कलाम की तस्वीर के बीच, और मन में एक लक्ष्य, कि चाहे कुछ हो जाए निकलेंगे यहां से तो सरकारी बाबू बनकर ही। रोज सुबह की शुरुआत द हिंदू से देर रात तक प्रतियोगिता दर्पण, लुसेंट, स्पीडी और लक्ष्मीकांत, इनका जीवन इन्हीं नामो के बीच अनवरत चलता रहता है। रोज शाम को साइबर कैफे वाले से एक बार पूछना " भैया कोनो नया फारम भी आया हैं" से लेकर चाय की दुकान पर चर्चा में " यार, इस बार एसएससी अब तक नोटिस क्यों नहीं निकाला हैं", " अरे पहले पुराना वाला क्लियर करेगा तब ना नया वेकेंसी देगा" जैसी बाते सुनना एक प्रकार से इसके दैनिक दिनचर्या का अंग हो जाता हैं। और फिर अगले दिन वापस से द हिंदू से शुरू होकर..

तो आखिर सरकारी नौकरी ही क्यों ? क्यों इतने संघर्ष के बाद भी सफलता की उम्मीद काफी कम होने के बावजूद युवा सरकारी नौकरी की ओर आकर्षित होते हैं? क्या कारण है कि मेहनत के अनुरूप कम पारिश्रमिक और अपनी काबिलियत के मुताबिक काम ना मिलने के बाबजूद लोग सरकारी नौकरी चाहते हैं? अगर हम इन प्रश्नों का उत्तर खोजने का प्रयास करेंगे तो कई पहलू आपके सामने आएंगे। लोग सरकारी नौकरी में जाने का सबसे बड़ा कारण सुरक्षा को मानते हैं। उनका मानना है कि एक बार अगर नौकरी मिल गई तो आपका भविष्य सुरक्षित हो जाता हैं। जल्दी आपको कोई आपके पद से हटा नही सकता, आप सेवानिवृत्ति के बाद ही हट सकते हैं। इसके साथ साथ लोगो को लगता है कि निजी क्षेत्र के मुकाबले सरकारी नौकरी में काम का बोझ कम होता हैं। कई लोग सरकारी क्षेत्रों में व्याप्त भ्रष्टाचार को देखते हुए भी कम समय में अधिक धन के लोभ से इस ओर आकर्षित होते हैं। साथ साथ उत्तर भारत खासकर हिंदी पट्टी में सरकारी नौकरी करने वाले लोगो की समाज में एक अलग प्रतिष्ठा होती हैं। लोग अपने बच्चे के विवाह में सरकारी नौकरी करने वाले को अधिक प्राथमिकता देते हैं। इसके अलावा कई और कारण है जो युवाओं को सरकारी नौकरी के प्रति आकर्षित करता हैं।

तो क्या सरकारी नौकरी की तैयारी में लगे सारे युवा अपने इच्छानुसार इसके पीछे पड़े है ? इसका उत्तर है नही। सरकारी नौकरी की तैयारी में लगभग आधे युवा के पास कोई ना कोई मजबूरी होती है। ये मजबूरी अलग अलग तरह की हो सकती है जैसे आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक इत्यादि। उसमे से शायद कोई डॉक्टर बनने के सपने रखता होगा, कोई इंजीनियर, कोई वकील तो कोई कुछ। लेकिन हालात और स्थिति उसके नियंत्रण में नहीं होते कि वो अपने भविष्य का निर्णय खुद ले सके। और फिर अंत में कूद जाते है एक ऐसे मैदान में जिससे उसका कोई हार्दिक सरोकार नहीं होता। हां, ये सच है कि इनमें से कुछ लोगों को आखिर में मंजिल मिल भी जाती है लेकिन अधिकतर के पास अंत कहने को शायद यही बच जाता है कि

"तुझे पाने की कोशिश में कुछ इतना खो चुका हूँ मैं,

कि तू मिल भी अगर जाए तो अब मिलने का ग़म होगा।"

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Rishabh Rajput

खुद की तलाश में भटकता एक बटोही।